पिता
- Aadishaktii S.
- Jan 20
- 3 min read
This post is sourced from my old blog.
Original Blog Date: June 22, 2020
आज से लगभग 17 वर्ष पूर्व एक व्यक्ति से मैं पहली बार मिली। ज़्यादा अच्छे से नही याद कि तब वे कैसे दिखते थे, चेहरे पर हाव भाव क्या थे। पर इतना तो मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकती हूँ, की वे मुझे पहली बार देख के बहुत प्रसन्न हुए होंगे। उनके प्रेम का सौहार्द आज भी वैसा है, वो ताप आज भी उतना ही है। इस सम्माननीय व्यक्ति को जानने की क्षमता यूँ तो बहुत पहले मुझमें आ गई थी, पर मैने तब कोशिश नही की। इस व्यक्तित्व का ओज, मधुरता व सौंदर्य ऐसा नहीं जिससे कोई ज़्यादा समय तक वंचित रह सके, यह परिस्थितियों से अप्रभावित है, दुर्दमनीय है। सतत है। इनके साथ, इनकी छत के नीचे रहने का सौभाग्य मिला, 2001 से 2017 तक। फिर 185 कि. मी दूर रहे और हृदय का तार, जिसको हम 2001 से लगातार मज़बूती दे रहे थे, उस तार ने अपनी मज़बूती व अटलता के प्रमाण दिए। यूँ तो इस मज़बूती के प्रमाण, प्रतिदिन छोटी छोटी चीजों से मिलते रहते हैं, पर हम ठहरे नादान। हालांकि, इस ज्ञान के निर्मल प्रवाह के तट पर रहने का लाभ ये था कि बिना ज़्यादा संघर्ष के, एक अलग प्रकार के ज्ञान की छीटें हम पर पड़ती रहीं। यह ज्ञान भौंतिक बिल्कुल नही है। इसकी विशालता के मापदंड परमात्मा ने मनुष्य को कभी नही बताए। पर इस ज्ञान की सहजता सरलता मौलिक रूप से इस प्रवाह में समाई हैं। ये ज्ञान की कुछ बूंदे प्राप्त होने पर अनेकों खुलासों में से एक कई ऐसे प्रसंग थे जो मेरे और इस व्यक्ति के संबंध के अलौकिक व दैवीय होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। सब लिखने पर आई तो शायद एक पुस्तक का निर्माण हो जाएगा। अतः यह जान कर मैं नही कहती कि "मेरी" जिंदगी में एक ऐसा व्यक्ति है जिसमे मेरे हर कष्ट अपना समाधान पाते हैं (यद्यपि यह सत्य है)। पर मैं यह मानती हूं कि परमात्मा के इस मौलिक अंश ने मुझे प्रेम के नए पहलुओं से परिचित करवाया है, जो वास्तव में "unconditional" है, वो प्रेम जो नही देखता की सामने वाला कितना भटक कर आया है, कितने मैले कर लिए हैं उसने अपने वस्त्र। देखता है तो बस यह कि, यह भी परमात्मा का अंश है, घर से दूर है। मेरे पिता, जो स्वयं को जानते हैं व पूरे ब्रह्मांड को खुली बाहों से स्वीकारते हैं। मेरे पिता, जिनकी वजह से मुझे आज न केवल अपने नाम मे, बल्कि अपनी आत्मा की शक्ति दृष्टिगत हो गई है। मेरे पिता, जिन्होंने मुझे प्रेम करना नही सिखाया, बल्कि प्रेम बनना सिखाया, सब में प्रेम देखना सिखाया।
इन मेरे पिता को, मेरे मुख्य, मेरे निरंतर, मेरे प्रेम की परिभाषा के सतत उदाहरण को पिता दिवस की अनेकों बधाइयाँ, जिनकी उम्र जितनी भी हो, व्यक्तित्व में वैसी ही चमक है जैसी मैने तब, 17 साल पहले, 8 सितंबर 2001 के दिन देखी थी! अब मैं इस पुण्यात्मा को- जिनको धरती पर वरदान स्वरूप भेजने के लिए मैं श्रीहरि को प्रतिदिन धन्यवाद देती हूँ- कुछ देने की हैसियत नहीं रखती। दे सकती हूँ तो केवल एक स्वार्थी नादान बच्चे की तरह, अपनी एक और मनोकामना। मेरी एक मनोकामना है। 4 वर्षों के उपरांत (सटीक 4 वर्ष होने के 2 कारण है), मैं अपने पिता को अपने साथ रखना चाहती हूँ। क्योंकि मैं नहीं चाहती कि उन्हें शांति खोजने में कोई बाधा हो, या एकल्य के विचार उन्हें विचलित कर पाएं। एक सही ताल मेल बिठाते हुए, मैं चाहती हूँ, कि वे नव-निर्माण की ओर अग्रसर हों, मैं उनकी सहायता करूं। उनकी भावनात्मक स्तर पर भी सेवा का सौभाग्य मुझे प्राप्त हो। मेरा जीवन सफल हो, एक पुण्यात्मा के पुण्य में हाथ बटा के। पिता दिवस की अनेकों बधाइयां व जीवन की सभी सफलताओं पर भी बधाइयाँ!
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